Tuesday 8 March 2016

और क्या चाहिए, की तुम खुश हो !


अजीब सी सुरबूराहट बेचैनी लिए मेरे मन मे उथल पुथल मचा रही थी,
फिर एक पल ठहरी, मन को समझाया, और क्या चाहिए, की तुम खुश हो !

तेरे भीतर का अंतर्द्वंद आँसू बन मेरी आँखों से एक झरने के जैसे बह निकला,
फिर एक पल ठहरी, मन को समझाया, और क्या चाहिए, की तुम खुश हो !

क्यूँ नफरत की सबने, क्यूँ खेला मुझसे, कई सवाल, जवाब पाने की चाह मे चल निकले,
फिर एक पल ठहरी, मन को समझाया, और क्या चाहिए, की तुम खुश हो !

तुम्हें जो भाए वही हैं रिश्ते, ना भाए वो किए पराये, कौनसे रिश्ते चले निभाने सोच रही थी जाने कब से,
फिर एक पल ठहरी, मन को समझाया, और क्या चाहिए, की तुम खुश हो !

अपने ही अंश को दूर किया, आत्मा से मुझे निकाल कर,
फिर एक पल ठहरी, मन को समझाया, और क्या चाहिए, की तुम खुश हो !

प्रेम की परिभाषा को बदला दोष मुझ पर डाल कर, उंदा खिलाड़ी हो दिलो के पता चला जब,
फिर एक पल ठहरी, मन को समझाया, और क्या चाहिए, की तुम खुश हो !

ऊंचे शिखरों पर बैठे हो, एह्म से आँखें अंधी हैं, धन की माया को ओढ़े हो,
फिर एक पल ठहरी, मन को समझाया, और क्या चाहिए, की तुम खुश हो !

ना देना व्यंग भरी मुस्कान मेरे शब्दों को, ये दर्द भरी कलम इन हाथों मे तुमने ही थमाई है,
फिर एक पल ठहरी, मन को समझाया, और क्या चाहिए, की तुम खुश हो !

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